
मैं लखनऊ हूँ — तहज़ीब की ज़ुबान, नवाबों की जान। कभी मेरी गलियाँ पतली थीं, मगर दिल बड़े थे। ना हॉर्न का शोर था, ना धुएं का जहर। आज चौड़ी सड़कें हैं, लेकिन हालत ये है कि गाड़ियाँ रेंगती हैं, और लोग झुंझलाते हैं।
बैरिकेडिंग का खेल: ट्रैफिक लाइट गई तेल लेने
जब बैरिकेडिंग ही लगानी थी, तो ये ट्रैफिक लाइट्स क्यों टाँगी गईं?
बुद्धा पार्क से हनुमंत धाम, हजरतगंज से लेकर केडी सिंह बाबू स्टेडियम तक, नहरिया जाम- हर 500 मीटर पर लगता है नया जाम।
कट कभी खुलता है, कभी बंद होता है। लोग समझ नहीं पाते कि गाड़ी घर जाए या आरटीओ।
जब मरीज रूट में उलझ जाए…
कभी सोचा है?
एम्बुलेंस में बैठा वो मरीज़ क्या सोचता होगा, जो सिविल अस्पताल सीधा नहीं जा सकता — उसे श्रीराम टावर की मोड़ तक दौड़ना पड़ता है?
और ट्रैफिक सिपाही बस हाथ से इशारे करते रहते हैं, जैसे कोई कवि कविता सुना रहा हो!

Smart City या ‘Stuck City’?
तरक्की के खिलाफ नहीं हूँ मैं, पर जो तरक्की जान के लाले डाल दे, वो सिर्फ पोस्टर में ही अच्छी लगती है।
जिम्मेदारों से मेरी गुहार…
कृपया ये बैरिकेटिंग हटाइए, और भरोसा कीजिए ट्रैफिक लाइट सिस्टम पर। जो सिस्टम दुनिया के तमाम बड़े शहरों को चला सकता है, वो लखनऊ को भी संभाल सकता है। वरना ये शहर नहीं, एक ट्रैफिक वॉल्यूम टेस्टिंग लैब बनकर रह जाएगा।
ये एक मरते हुए शहर की पुकार है…
मैं लखनऊ हूं, अभी भी जिंदा हूं, पर हर रोज़ थोड़ा-थोड़ा दम घुटता है, हर जाम में, हर बैरिकेड में, हर झल्लाए चेहरे में। मेरे इतिहास को तुमने जिंदा रखा, अब मेरी सड़कों को भी थोड़ा चैन दो।
“मैं हूं रूमी दरवाजा… ना की तुम्हारी पार्किंग लॉट ”लखनऊ वालों” !”